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सुलगती नज़रों का ख़्वाब हो तुम | शाही शायरी
sulagti nazron ka KHwab ho tum

ग़ज़ल

सुलगती नज़रों का ख़्वाब हो तुम

बानो बी

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सुलगती नज़रों का ख़्वाब हो तुम
मोहब्बतों का शबाब हो तुम

समझ न पाई जिसे कभी मैं
किताब-ए-दिल का वो बाब हो तुम

कहो तो जुज़ दान में छुपा लूँ
खुली हुई इक किताब हो तुम

बिछे थे राहों में फूल कितने
जो भा गया वो गुलाब हो तुम

बुरा कहे तुम को लाख दुनिया
मिरे तो आली-जनाब हो तुम

नहीं है बस मैं तुम्हें भुलाना
अजब तरह का अज़ाब हो तुम

लगा कि मंज़िल तुम्ही हो लेकिन
नज़र का मेरी सराब हो तुम

वफ़ा से आरी सही मिज़ाजन
वफ़ा का मेरी जवाब हो तुम

कई सवालों में तुम घिरे हो
मगर बहुत ला-जवाब हो तुम

उलट के रख दी है मेरी दुनिया
हयात का इंक़लाब हो तुम

मैं राग रंग और रक़्स जैसी
ग़ज़ल तरन्नुम रबाब हो तुम

ये नश्शा टूटा न ज़िंदगी-भर
बहुत पुरानी शराब हो तुम

ऐ जान 'बानो' ये जान लो अब
ब-ज़ात-ए-ख़ुद इंतिख़ाब हो तुम