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सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ | शाही शायरी
sukut se bhi suKHan ko nikal lata hua

ग़ज़ल

सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

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सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
ये मैं हूँ लौह-ए-शिकस्ता से लफ़्ज़ उठाता हुआ

मकाँ की तंगी ओ तारीकी बेश-तर थी सो मैं
दिए जलाता हुआ आईने बनाता हुआ

तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
कभी मैं ख़ुद को तिरे नाम से बुलाता हुआ

चराग़ जलते ही इक शहर मुन्कशिफ़ हम पर
और उस के बाद वही शहर डूब जाता हुआ

बस एक ख़्वाब कि उस क़र्या-ए-बदन से हुनूज़
नवाह-ए-दिल तलक इक रास्ता सा आता हुआ