सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
ये मैं हूँ लौह-ए-शिकस्ता से लफ़्ज़ उठाता हुआ
मकाँ की तंगी ओ तारीकी बेश-तर थी सो मैं
दिए जलाता हुआ आईने बनाता हुआ
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
कभी मैं ख़ुद को तिरे नाम से बुलाता हुआ
चराग़ जलते ही इक शहर मुन्कशिफ़ हम पर
और उस के बाद वही शहर डूब जाता हुआ
बस एक ख़्वाब कि उस क़र्या-ए-बदन से हुनूज़
नवाह-ए-दिल तलक इक रास्ता सा आता हुआ
ग़ज़ल
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क