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सुकून-ए-क़ल्ब ओ शकेब-ए-नज़र की बात करो | शाही शायरी
sukun-e-qalb o shakeb-e-nazar ki baat karo

ग़ज़ल

सुकून-ए-क़ल्ब ओ शकेब-ए-नज़र की बात करो

सूफ़ी तबस्सुम

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सुकून-ए-क़ल्ब ओ शकेब-ए-नज़र की बात करो
गुज़र गई है शब-ए-ग़म सहर की बात करो

दिलों का ज़िक्र ही क्या है मिलें मिलें न मिलें
नज़र मिलाओ नज़र से नज़र की बात करो

शगुफ़्ता हो न सकेगी फ़ज़ा-ए-अर्ज़-ओ-समा
किसी की जलवा-गह-ए-बाम-ओ-दर की बात करो

हरीम-ए-नाज़ की ख़ल्वत में दस्तरस है किसे
नज़ारा-हा-ए-सर-ए-रह-गुज़र की बात करो

बदल न जाए कहीं इल्तिफ़ात-ए-हुस्न का रंग
हलावत-ए-निगह-ए-मुख़्तसर की बात करो

जहान-ए-होश-ओ-ख़िरद के मुआ'मले हैं दराज़
किसी के गेसू-ए-आशुफ़्ता-सर की बात करो

निगाह-ए-नाज़ है इक काएनात-ए-राज़-ओ-नियाज़
जिधर करे वो इशारा उधर की बात करो

सुरूर-ए-ज़ीस्त हुआ जिस के दम-क़दम से नसीब
उसी नदीम उसी हम-सफ़र की बात करो

वो जिस से तल्ख़ी-ए-ज़हराब-ए-ग़म गवारा है
उसी 'तबस्सुम'-ए-शीरीं-असर की बात करो