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सुब्ह क़यामत आएगी कोई न कह सका कि यूँ | शाही शायरी
subh qayamat aaegi koi na kah saka ki yun

ग़ज़ल

सुब्ह क़यामत आएगी कोई न कह सका कि यूँ

बयान मेरठी

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सुब्ह क़यामत आएगी कोई न कह सका कि यूँ
आए वो दर से ना-गहाँ खोले हुए क़बा कि यूँ

गौहर-ए-नाब-सूदा को ज़ुल्फ़ में मत दिखा कि यूँ
मेरी कमंद-ए-शौक़ में रात के वक़्त आ कि यूँ

क्यूँ कि झुके नसीम से सोचे थी नर्गिस-ए-चमन
देख के चश्म-ए-नाज़ को आने लगी हया कि यूँ

चाहते थे शुहूद में ग़ैब का रंग देखना
मेरी ज़ि-ख़्वेश-ए-रफ़्तगी बन गई रहनुमा कि यूँ

सहव थी वज़-ए-ख़ासतन बिस्तर-ए-ऐश-ए-वस्ल से
देख के उन की शोख़ियाँ फ़ित्ना हुआ बपा कि यूँ

दीदा-ए-अहल-ए-इश्क़ है नूर-ए-निगाह से तही
आए वो फ़र्श-ए-नाज़ पर छोड़ के कफ़्श-ए-पा कि यूँ

मैं ने कहा कनार-ए-नाज़ चाहिए इस ग़मीं से पुर
सुन के रक़ीब-ए-ज़िश्त को पास बिठा लिया कि यूँ

शो'ला-ए-रश्क-ए-ग़ैर से जल के उठाना जाए था
दूर चराग़-ए-बज़्म ने उठ के बता दिया कि यूँ

ख़ून-ए-शहीद-ए-इश्क़ वो कहते थे फ़ाश कैसे हो
रंग-ए-गुल-एज़ार से सुर्ख़ हुई हवा कि यूँ

उस कफ़-ए-पा के बोसे की कब मुझे राह याद थी
बदरक़ा-ए-तलब हुई जुरअत-ए-संग-ए-पा कि यूँ

रिज़्क़ नहीं है बिन तलाश कहती थी तंगी-ए-म'आश
गर्दिश-ए-संग-ए-आसिया देने लगी सदा कि यूँ

उस के ख़िराम-ए-शौक़ से पिस गई ख़ल्क़ किस रविश
मिट गई बाद-ए-तुंद से सूरत-ए-नक़्श-ए-पा कि यूँ

सई-ए-तरीक़-ए-शौक़ से फ़ित्ने को आगही नहीं
उस की जिलौ में दौड़े से साया बरहना-पा कि यूँ

शब को नुमू-ए-रंग से ख़ंदा-ए-गुल का ज़िक्र था
नश्व-ओ-नुमा-ए-हुस्न से टुकड़े हुई क़बा कि यूँ

नर्गिस-ए-महविशाँ से पूछ गर्दिश-ए-आसमाँ से पूछ
सुर्मा हुए वफ़ा-सरिश्त क्या कहें ऐ ख़ुदा कि यूँ

साना-ए-गुलशन-ए-इरम मैं ने कहा कि हाए हाए
दर पे उस अंजुमन से दूर क़त्ल मुझे किया कि यूँ

मैं ने कहा नसीम से चटके है ग़ुंचा किस तरह
कुंज-ए-दहान-ए-तंग से बोसे ने दी सदा कि यूँ

रेख़्ता रश्क-ए-फ़ारसी उस से न हो सका बयाँ
महफ़िल-ए-उर्स-ए-'मीर' में शे'र मिरे सुना कि यूँ