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सोज़िश-ए-ग़म ब-रू-ए-कार आई | शाही शायरी
sozish-e-gham ba-ru-e-kar aai

ग़ज़ल

सोज़िश-ए-ग़म ब-रू-ए-कार आई

ख़ार देहलवी

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सोज़िश-ए-ग़म ब-रू-ए-कार आई
आह भी लब पे शोला-बार आई

चश्म-ए-गिर्यां की आबयारी से
दिल के दाग़ों पे फिर बहार आई

दस्त-ए-वहशत की कार-फ़रमाई
ता-ब-दामान-ए-तार-तार आई

तेरे दीवाने क्या भला जानें
कब ख़िज़ाँ आई कब बहार आई

कस्मापुर्सी का उफ़-रे ये आलम
याद हम को जफ़ा-ए-यार आई

देखो वो छाई ऊदी ऊदी घटा
मय-गुसारों की ग़म-गुसार आई

सू-ए-गुलशन जो आज आ निकले
यार की याद बार बार आई

भीनी भीनी किसी बदन की महक
बू-ए-गेसू-ए-मुश्क-बार आई

ग़ुंचा ओ गुल का देख कर जौबन
याद-ए-महबूब-ए-गुल-अज़ार आई

है जवानी ख़ुद अपनी मश्शाता
हुस्न को किस क़दर निखार आई

'ख़ार' उल्फ़त की बात जाने दो
ज़िंदगी किस को साज़गार आई