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सोज़-ए-अलम से दूर हुआ जा रहा हूँ मैं | शाही शायरी
soz-e-alam se dur hua ja raha hun main

ग़ज़ल

सोज़-ए-अलम से दूर हुआ जा रहा हूँ मैं

शेरी भोपाली

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सोज़-ए-अलम से दूर हुआ जा रहा हूँ मैं
वो तो जला रहे हैं बुझा जा रहा हूँ मैं

मानूस-ए-इल्तिफ़ात हुआ जा रहा हूँ मैं
देख ऐ निगाह-ए-नाज़ मिटा जा रहा हूँ मैं

जल्वों की ताबिशें हैं कि अल्लाह की पनाह
रंगीं तजल्लियों में घिरा जा रहा हूँ मैं

ये आते जाते है निगह-ए-ग़ैज़ किस लिए
ले आज तेरे दर से उठा जा रहा हूँ मैं

राहों से आश्ना हूँ न मंज़िल-शनास हूँ
ले जा रहा है शौक़ चला जा रहा हूँ मैं

कैफ़िय्यत उस निगाह की हमदम बताऊँ क्या
इक मौज है कि जिस में बहा जा रहा हूँ मैं

या इब्तिदा-ए-इश्क़ में ग़म मेरे साथ था
या ग़म के साथ साथ चला जा रहा हूँ मैं

क्या चीज़ है नवेद-ए-रिहाई कि हम-नफ़स
जैसे क़फ़स समेत उड़ा जा रहा हूँ मैं

मेरी तबाहियों पे ज़माने को रश्क है
तुम तो मिटा रहे हो बना जा रहा हूँ मैं

'शेरी' ये किस ने आज नज़र मुझ से फेर ली
अपनी नज़र से आप गिरा जा रहा हूँ मैं