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सोचता हूँ सदा मैं ज़मीं पर अगर कुछ कभी बाँटता | शाही शायरी
sochta hun sada main zamin par agar kuchh kabhi banTta

ग़ज़ल

सोचता हूँ सदा मैं ज़मीं पर अगर कुछ कभी बाँटता

इनआम आज़मी

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सोचता हूँ सदा मैं ज़मीं पर अगर कुछ कभी बाँटता
तो अंधेरों के नज़दीक जाता उन्हें रौशनी बाँटता

तेरे होते हुए हम तुझे ढूँडते फिर रहे थे अज़ीज़
काश तू हर घड़ी हर जगह हम से मौजूदगी बाँटता

ख़ालिका मुझ को मालूम होता अगर आख़िरी मोड़ है
मैं बिछड़ते हुए सारे किरदार को ज़िंदगी बाँटता

वक़्त ने बेड़ियाँ डाल रक्खी थीं पाँव में वर्ना तो मैं
शहर की सारी गलियों को हर वक़्त आवारगी बाँटता

मेरे भाई अगर दरमियाँ अपने दीवार उठती नहीं
तेरा दुख बाँटता और तुझ से मैं अपनी ख़ुशी बाँटता

मुझ को कमरे की दीवार खिड़की कैलन्डर समझते थे बस
और कोई नहीं जिन से मैं अपनी अफ़्सुर्दगी बाँटता

जो अज़िय्यत के ख़ाने में अब रख रहे हैं मोहब्बत को काश
इश्क़ होने से पहले उन्हें 'मीर' की शाइ'री बाँटता