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सोचिए गर उसे हर नफ़स मौत है कुछ मुदावा भी हो बे-हिसी के लिए | शाही शायरी
sochiye gar use har nafas maut hai kuchh mudawa bhi ho be-hisi ke liye

ग़ज़ल

सोचिए गर उसे हर नफ़स मौत है कुछ मुदावा भी हो बे-हिसी के लिए

शहज़ाद अंजुम बुरहानी

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सोचिए गर उसे हर नफ़स मौत है कुछ मुदावा भी हो बे-हिसी के लिए
सूरजों की विरासत मिली थी हमें दर-ब-दर हो गए रौशनी के लिए

कोई आवाज़ है वो कोई साज़ है उस से ही रंग-ओ-निकहत का दर बाज़ है
जिस तरफ़ हो नज़र वो रहे जल्वा-गर कैसे सोचेंगे हम फिर किसी के लिए

बद-दिमाग़ी मिरी है वही जो कि थी तर्ज़-ए-ख़ुद-बीं तुम्हारा वो है जो कि था
चल रहे हैं अना के सहारे मगर रास्ता ही नहीं वापसी के लिए

हो सलामत मिरा इश्क़ जोश-ए-जुनूँ हुस्न के राज़ ख़ुद मुन्कशिफ़ हो गए
इतनी मुश्किल नहीं रहगुज़ार-ए-फ़ना बे-ख़ुदी चाहिए आगाही के लिए

इस ज़माने से कोई तवक़्क़ो' न रख किस में हिम्मत है ख़ंजर पे रख दे ज़बाँ
अद्ल-गाहों में इंसाफ़ बिकने लगा सच भी कहना है जुर्म आदमी के लिए

तुम से इक घूँट की प्यास क्या बुझ सकी जब कि वाबस्तगी तो समुंदर से थी
हम ने दरियाओं तक का सफ़र तय किया अपने बे-मा'नी सी तिश्नगी के लिए

आदमी की हवस का ठिकाना नहीं लेकिन 'अंजुम' ख़ुदा से यही माँगना
इक वफ़ादार बीवी हो बच्चे हों घर और क्या चाहिए ज़िंदगी के लिए