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सो के जब वो निगार उठता है | शाही शायरी
so ke jab wo nigar uThta hai

ग़ज़ल

सो के जब वो निगार उठता है

अब्दुल हमीद अदम

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सो के जब वो निगार उठता है
मिस्ल-ए-अब्र-ए-बहार उठता है

तेरी आँखों के आसरे के बग़ैर
कब ग़म-ए-रोज़गार उठता है

दो घड़ी और दिल लुभाता जा
क्यूँ ख़फ़ा हो के यार उठता है

ऐसे जाती है ज़िंदगी की उमीद
जैसे पहलू से यार उठता है

ज़िंदगी शिरकतों से चलती है
किस से तन्हा ये बार उठता है

जो भी उठता है उस की महफ़िल से
ख़स्ता ओ दिल-फ़िगार उठता है

आज की रात ख़ैर से गुज़रे
दर्द-ए-दिल बार बार उठता है

आओ कुछ ज़िंदगी के नाज़ सहें
किस से तन्हा ये बार उठता है

होश में हो तो मय-कदे से 'अदम'
कब कोई बादा-ख़्वार उठता है