सियासत जब ज़रूरत हो नया रिश्ता बनाती है
कोई कितना मुख़ालिफ़ हो उसे अपना बनाती है
शनासा ख़ौफ़ की तस्वीर है उस की बयाज़ों में
मिरी बेटी हसीं पिंजरे में इक चिड़िया बनाती है
तख़य्युल हर्फ़ में ढल कर उभर आता है काग़ज़ पर
सरापा सोचता हूँ मैं ग़ज़ल चेहरा बनाती है
किसी पर मेहरबाँ होती है जब भी दौलत-ए-दुनिया
उसे साहब उसे क़िबला उसे क्या क्या बनाती है
हक़ीक़ी शाइ'री दाद-ए-सुख़न से भी हुई महरूम
बिला सर-पैर वाली शाइ'री पैसा बनाती है
गवारा कब है ममता को मिरा यूँ धूप में चलना
मिरी माँ ओढ़नी फैला के इक छाता बनाती है
ये अच्छाई में भी 'साबिर' बुराई ढूँड लेती है
ये दुनिया है अलिफ़ पर भी कभी शोशा बनाती है

ग़ज़ल
सियासत जब ज़रूरत हो नया रिश्ता बनाती है
साबिर शाह साबिर