सितम तीर-ए-निगाह-ए-दिलरुबा था
हमारे हक़ में पैग़ाम-ए-क़ज़ा था
हुआ अच्छा कि वो घर से न निकले
किसे मालूम किस के दिल में क्या था
मुझे वो याद करते हैं ये कह कर
ख़ुदा बख़्शे निहायत बा-वफ़ा था
उम्मीद-ए-वस्ल की हालत न पूछो
फ़क़त इक आसरा ही आसरा था
बहुत अच्छा हुआ वो ले गए दिल
बड़ा ज़िद्दी निहायत बेवफ़ा था
नहीं मालूम उस कम-सिन को ये भी
हमारे दिल में क्या है और क्या था
न पूछो जल्वा-गाह-ए-नाज़ का जमाल
हर इक महव-ए-जमाल-ए-दिलरुबा था
सुना है मय-कशी करने लगा 'हिज्र'
वो मर्द-ए-बा-ख़ुदा तो पारसा था
ग़ज़ल
सितम तीर-ए-निगाह-ए-दिलरुबा था
हिज्र नाज़िम अली ख़ान