सितम के मारे लहू में डूबे हुए नज़ारों का क्या करूँगा
सिसकते ग़ुंचो तुम्हीं बताओ मैं इन बहारों का क्या करूँगा
जिन्हें भरोसा हो आसमाँ पर वो आसमाँ से पनाह माँगें
मैं अपने ज़र्रों से मुतमइन हूँ मैं चाँद-तारों का क्या करूँगा
अगर मुझे दे सके ज़माना तो कुछ नए ज़ख़्म और दे दे
मैं ग़मगुसारों को जानता हूँ मैं ग़मगुसारों का क्या करूँगा
हैं शाम-ए-ग़ुर्बत की तीरगी में मुझे मिरे अश्क ही ग़नीमत
हो जिन की क़िस्मत में ख़ुद ही गर्दिश मैं उन सितारों का क्या करूँगा
मैं ख़ुद ही तूफ़ाँ हूँ अपना साहिल निकाल लूँगा यहीं कहीं से
जहाँ सफ़ीने भी डूब जाएँ मैं उन किनारों का क्या करूँगा
तुम्हारे दैर-ओ-हरम के जल्वे तुम्हें मुबारक तुम्हीं सँभालो
मुझे हक़ीक़त की जुस्तुजू है मैं ख़्वाब-ज़ारों का क्या करूँगा
अभी तो दामान-ए-ग़ुन्चा-ओ-गुल से लूँगा मैं इंतिक़ाम 'अरशद'
अभी जुनूँ मो'तबर नहीं है अभी बहारों का क्या करूँगा
ग़ज़ल
सितम के मारे लहू में डूबे हुए नज़ारों का क्या करूँगा
अरशद सिद्दीक़ी