सिसकियाँ लेती हुई ग़मगीं हवाओ चुप रहो
सो रहे हैं दर्द उन को मत जगाओ चुप रहो
रात का पत्थर न पिघलेगा शुआ'ओं के बग़ैर
सुब्ह होने तक न बोलो हम-नवाओ चुप रहो
बंद हैं सब मय-कदे साक़ी बने हैं मोहतसिब
ऐ गरजती गूँजती काली घटाओ चुप रहो
तुम को है मालूम आख़िर कौन सा मौसम है ये
फ़स्ल-ए-गुल आने तलक ऐ ख़ुश-नवाओ चुप रहो
सोच की दीवार से लग कर हैं ग़म बैठे हुए
दिल में भी नग़्मा न कोई गुनगुनाओ चुप रहो
छट गए हालात के बादल तो देखा जाएगा
वक़्त से पहले अँधेरे में न जाओ चुप रहो
देख लेना घर से निकलेगा न हम-साया कोई
ऐ मिरे यारो मिरे दर्द-आश्नाओ चुप रहो
क्यूँ शरीक-ए-ग़म बनाते हो किसी को ऐ 'क़तील'
अपनी सूली अपने काँधे पर उठाओ चुप रहो
ग़ज़ल
सिसकियाँ लेती हुई ग़मगीं हवाओ चुप रहो
क़तील शिफ़ाई