सिर्फ़ कर्ब-ए-अना दिया है मुझे
ज़िंदगी ने भी क्या दिया है मुझे
मुस्कुराते हुए भी डरता हूँ
ग़म ने बुज़दिल बना दिया है मुझे
जिस तरह रेत पर हो नक़्श कोई
यूँ हवा ने मिटा दिया है मुझे
मैं उसे दिल-लगी समझता था
तू ने सच-मुच भुला दिया है मुझे
यारब इस बे-हिसों के शहर में क्यूँ
दिल-ए-दर्द-आश्ना दिया है मुझे
वो भी ठंडी हवा का झोंका था
जिस ने यकसर जला दिया है मुझे
उस ने रक्खा है बे-तरह मसरूफ़
रोज़ ही ग़म नया दिया है मुझे
आज मेरे ही दिल ने ऐ 'आबिद'
अपना दुश्मन बना दिया है मुझे

ग़ज़ल
सिर्फ़ कर्ब-ए-अना दिया है मुझे
आबिद मुनावरी