सिमटूँ तो सिफ़्र सा लगूँ फैलूँ तो इक जहाँ हूँ मैं
जितनी कि ये ज़मीन है उतना ही आसमाँ हूँ मैं
मेरे ही दम-क़दम से हैं क़ाएम ये नग़्मा-ख़्वानियाँ
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद का तूती-ए-ख़ुश-बयाँ हूँ मैं
मुझ ही में ज़म हैं जान ले दरिया तमाम दहर के
क़तरा न तू मुझे समझ इक बहर-ए-बे-कराँ हूँ मैं
नाज़ाँ है ख़द्द-ओ-ख़ाल पर अपने बहुत अगर तो सुन
मुझ में सभी के अक्स हैं आईना-ए-जहाँ हूँ मैं
पहले भी मैं क़रीब था अब भी तिरे क़रीब हूँ
महसूस कर मुझे तिरा हम-ज़ाद-ए-जिस्म-ओ-जाँ हूँ मैं
फूलों से प्यार कर मगर मुझ को न दिल-फ़िगार कर
काँटा भी हूँ अगर तो क्या फूलों के दरमियाँ हूँ मैं
अपनों में मैं ही ग़ैर हूँ ग़ैरों से क्या गिला 'ज़फ़र'
अपने ही घर में हूँ मगर ग़ैरों के दरमियाँ हूँ मैं

ग़ज़ल
सिमटूँ तो सिफ़्र सा लगूँ फैलूँ तो इक जहाँ हूँ मैं
ज़फ़र कलीम