सिलसिला अब भी ख़्वाबों का टूटा नहीं
कूच कर जाएँ कब कुछ भरोसा नहीं
हैं फ़सीलों से उलझे हुए सर-फिरे
दूर तक कोई शहर-ए-तमन्ना नहीं
शाम से ही घरों में पड़ीं कुंडियाँ
चाँद इस शहर में क्यूँ निकलता नहीं
आग लगने की ख़बरें तो पहुँचीं मगर
कोई हैरत नहीं कोई चौंका नहीं
छीन कर मुझ से ले जाए मेरा बदन
मो'तबर इतना कोई अंधेरा नहीं
क्या यही मिलते रहने का इनआ'म है
एक खिड़की नहीं इक झरोका नहीं
एक मंज़र में लिपटे बदन के सिवा
सर्द रातों में कुछ और दिखता नहीं
तेज़ हो जाएँ इस का तो इम्कान है
आँधियाँ अब रुकें ऐसा लगता नहीं
ग़ज़ल
सिलसिला अब भी ख़्वाबों का टूटा नहीं
आशुफ़्ता चंगेज़ी