सीने में ख़िज़ाँ आँखों में बरसात रही है
इस इश्क़ में हर फ़स्ल की सौग़ात रही है
किस तरह ख़ुद अपने को यक़ीं आए कि उस से
हम ख़ाक-नशीनों की मुलाक़ात रही है
सूफ़ी का ख़ुदा और था शायर का ख़ुदा और
तुम साथ रहे हो तो करामात रही है
इतना तो समझ रोज़ के बढ़ते हुए फ़ित्ने
हम कुछ नहीं बोले तो तिरी बात रही है
हम में तो ये हैरानी-ओ-शोरीदगी-ए-इश्क़
बचपन ही से मिनजुमला-ए-आदात रही है
इस से भी तो कुछ रब्त झलकता है कि वो आँख
बस हम पे इनायात में मोहतात रही है
इल्ज़ाम किसे दें कि तिरे प्यार में हम पर
जो कुछ भी रही हसब-ए-रिवायात रही है
कुछ 'मीर' के हालात से हासिल करो इबरत
ले दे के अब इक इज़्ज़त-ए-सादात रही है
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ग़ज़ल
सीने में ख़िज़ाँ आँखों में बरसात रही है
मुस्तफ़ा ज़ैदी