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सीमाब-वशी तिश्ना-लबी बा-ख़बरी है | शाही शायरी
simab-washi tishna-labi ba-KHabari hai

ग़ज़ल

सीमाब-वशी तिश्ना-लबी बा-ख़बरी है

मख़दूम मुहिउद्दीन

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सीमाब-वशी तिश्ना-लबी बा-ख़बरी है
इस दश्त में गर रख़्त-ए-सफ़र है तो यही है

इस शहर में इक आहू-ए-ख़ुश-चश्म से हम को
कम कम ही सही निस्बत-ए-पैमाना रही है

बे-सोहबत-ए-रुख़्सार अँधेरा ही अँधेरा
गो जाम वही मय वही मय-ख़ाना वही है

इस अहद में भी दौलत-ए-कौनैन के बा-वस्फ़
हर गाम पे उन की जो कमी थी सो कमी है

हर दम तिरे अन्फ़ास की गर्मी का गुमाँ है
हर याद तिरी याद के फूलों में बसी है

हर शाम सजाए हैं तमन्ना के नशेमन
हर सुब्ह मय-ए-तल्ख़ी-ए-अय्याम भी पी है

धड़का है दिल-ए-ज़ार तिरे ज़िक्र से पहले
जब भी किसी महफ़िल में तिरी बात चली है

वो इत्र तिरी काकुल-ए-शब-रंग ने छिड़का
महकी है ख़िरद रूह कली बन के खिली है