शुऊर ओ होश ओ ख़िरद का मोआमला है अजीब
मक़ाम-ए-शौक़ में हैं सब दिल ओ नज़र के रक़ीब
मैं जानता हूँ जमाअत का हश्र क्या होगा
मसाइल-ए-नज़री में उलझ गया है ख़तीब
अगरचे मेरे नशेमन का कर रहा है तवाफ़
मिरी नवा में नहीं ताइर-ए-चमन का नसीब
सुना है मैं ने सुख़न-रस है तुर्क-ए-उस्मानी
सुनाए कौन उसे 'इक़बाल' का ये शेर-ए-ग़रीब
समझ रहे हैं वो यूरोप को हम-जवार अपना
सितारे जिन के नशेमन से हैं ज़ियादा क़रीब
ग़ज़ल
शुऊर ओ होश ओ ख़िरद का मोआमला है अजीब
अल्लामा इक़बाल