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शुऊर ओ होश ओ ख़िरद का मोआमला है अजीब | शाही शायरी
shuur o hosh o KHirad ka moamla hai ajib

ग़ज़ल

शुऊर ओ होश ओ ख़िरद का मोआमला है अजीब

अल्लामा इक़बाल

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शुऊर ओ होश ओ ख़िरद का मोआमला है अजीब
मक़ाम-ए-शौक़ में हैं सब दिल ओ नज़र के रक़ीब

मैं जानता हूँ जमाअत का हश्र क्या होगा
मसाइल-ए-नज़री में उलझ गया है ख़तीब

अगरचे मेरे नशेमन का कर रहा है तवाफ़
मिरी नवा में नहीं ताइर-ए-चमन का नसीब

सुना है मैं ने सुख़न-रस है तुर्क-ए-उस्मानी
सुनाए कौन उसे 'इक़बाल' का ये शेर-ए-ग़रीब

समझ रहे हैं वो यूरोप को हम-जवार अपना
सितारे जिन के नशेमन से हैं ज़ियादा क़रीब