शोर अब आलम में है उस शोबदा-पर्दाज़ का
चर्ख़ भी इक शोबदा है जिस सरापा नाज़ का
सादा-रूई क़हर थी और उस पे अब आया है ख़त
देखिए अंजाम क्या होता है इस आग़ाज़ का
तीर होवे जिस की मिज़्गाँ और हो अबरू कमाँ
दिल न हो क़ुर्बान क्यूँ कर ऐसे तीर-अंदाज़ का
उस के शाहीन-ए-निगह को ताइर-ए-दिल के लिए
पंजा-ए-मिज़्गाँ नहीं गोया है चुंगुल-बाज़ का
'ऐश' मुझ को बे-पर-ओ-बाली पर-ए-परवाज़ है
मैं नहीं मोहताज कुछ बाल-ओ-पर-ए-परवाज़ का
ग़ज़ल
शोर अब आलम में है उस शोबदा-पर्दाज़ का
ऐश देहलवी