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शो'ले से चटकते हैं हर साँस में ख़ुशबू के | शाही शायरी
shoale se chaTakte hain har sans mein KHushbu ke

ग़ज़ल

शो'ले से चटकते हैं हर साँस में ख़ुशबू के

ज़फ़र गौरी

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शो'ले से चटकते हैं हर साँस में ख़ुशबू के
आई है सबा शायद वो फूल सा तन छू के

एहसास के जंगल में इक आग भड़कती है
झोंके किसी गुलशन में हैं रक़्स-कुनाँ लू के

औरों ने भी पूजा है ऐ दोस्त तुझे लेकिन
यकसाँ तो नहीं होते जज़्बात मन-ओ-तू के

ये अहद-ए-तमन्ना भी इक दौर-ए-क़यामत है
जब हुस्न पिए आँसू और इश्क़ लहू थूके

हम ख़ोशा-ए-गंदुम को जन्नत से यहाँ लाए
फिर भी तिरे दीवाने दुनिया में रहे भूके

वो दर्द को चिंता था पलकों से सितारों को
नग़्मों में बदलता है एहसास के लब छू के

कुचला है बहुत दिल को संगीन हक़ाएक़ ने
फिर भी न 'ज़फ़र' भूले क़िस्से रुख़-ओ-गेसू के