शो'ला था जल-बुझा हूँ हवाएँ मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदाएँ मुझे न दो
जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
अब तुम तो ज़िंदगी की दुआएँ मुझे न दो
ये भी बड़ा करम है सलामत है जिस्म अभी
ऐ ख़ुसरवान-ए-शहर क़बाएँ मुझे न दो
ऐसा न हो कभी कि पलट कर न आ सकूँ
हर बार दूर जा के सदाएँ मुझे न दो
कब मुझ को ए'तिराफ़-ए-मोहब्बत न था 'फ़राज़'
कब मैं ने ये कहा है सज़ाएँ मुझे न दो
ग़ज़ल
शो'ला था जल-बुझा हूँ हवाएँ मुझे न दो
अहमद फ़राज़