शिकवा है न ग़ुस्सा है कि मैं कुछ नहीं कहता
क्यूँ आप को धड़का है कि मैं कुछ नहीं कहता
चुप रहने दो दम-भर मुझे लिल्लाह न छेड़ो
अब इस से तुम्हें क्या है कि मैं कुछ नहीं कहता
इस लुत्फ़-ज़बानी को ज़रा सोचिए दिल में
ये उज़्र तो बेजा है कि मैं कुछ नहीं कहता
उस लुत्फ़-ए-ज़बानी को ज़रा सोचिए दिल में
ये उज़्र तो बेजा है कि मैं कुछ नहीं कहता
मुँह मेरा न खुलवाओ कि हो जाएँगे लब बंद
देखो यही अच्छा है कि मैं कुछ नहीं कहता
डरता नहीं जो दिल में हो दुश्मन के लगाए
उन पर ये हुवैदा है कि मैं कुछ नहीं कहता
क्यूँ रुकते हो आदत से हूँ मजबूर वगर्ना
कुछ आप से पर्दा है कि मैं कुछ नहीं कहता
अब वो भी ये समझा कि ये समझा मेरी घातें
इस बात से डरता है कि मैं कुछ नहीं कहता
हर रोज़ नए ढंग हैं ख़ातिर के 'नसीम' आह
कल से यही सौदा है कि मैं कुछ नहीं कहता
ग़ज़ल
शिकवा है न ग़ुस्सा है कि मैं कुछ नहीं कहता
नसीम देहलवी