शिकस्ता ख़्वाबों का आँखों से राब्ता कर लें 
हर एक शब का तक़ाज़ा कि रत-जगा कर लें 
लगाएँ भीड़ गए ज़र्द-ओ-सब्ज़ लम्हों की 
और उस हुजूम में फिर ख़ुद को लापता कर लें 
वगरना जीने न देगा ग़म-ए-हयात का ज़हर 
किसी के भूले हुए ग़म का फिर नशा कर लें 
कुछ एहतिजाज भी रक्खें शरीक-ए-ज़ब्त-ए-सितम 
ज़बाँ है गुंग तो चेहरा सवालिया कर लें 
वो ज़ख़्म दस्त-ए-तलब हो कि हो गुल-ए-शादाब 
वो कुछ तो देगा हमीं अर्ज़-ए-मुद्दआ कर लें 
नज़र है तेरी तवज्जोह के हर तरश्शोह पर 
पड़े फुवार तो ज़ख़्मों को फिर हरा कर लें 
दिखाई देने लगा रुख़ पे रंग-ए-बातिन भी 
बहुत क़रीब हैं हम थोड़ा फ़ासला कर लें
        ग़ज़ल
शिकस्ता ख़्वाबों का आँखों से राब्ता कर लें
इज़हार वारसी

