शेर से शाइरी से डरते हैं
कम-नज़र रौशनी से डरते हैं
लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी
हम तिरी दोस्ती से डरते हैं
दहर में आह-ए-बे-कसाँ के सिवा
और हम कब किसी से डरते हैं
हम को ग़ैरों से डर नहीं लगता
अपने अहबाब ही से डरते हैं
दावर-ए-हश्र बख़्श दे शायद
हाँ मगर मौलवी से डरते हैं
रूठता है तो रूठ जाए जहाँ
उन की हम बे-रुख़ी से डरते हैं
हर क़दम पर है मोहतसिब 'जालिब'
अब तो हम चाँदनी से डरते हैं
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ग़ज़ल
शेर से शाइरी से डरते हैं
हबीब जालिब