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शेर दौलत है कहाँ की दौलत | शाही शायरी
sher daulat hai kahan ki daulat

ग़ज़ल

शेर दौलत है कहाँ की दौलत

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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शेर दौलत है कहाँ की दौलत
मैं ग़नी हूँ तो ज़बाँ की दौलत

सैकड़ों हो गए साहिब-दीवाँ
मेरी तक़रीरी ओ बयाँ की दौलत

सैर-ए-महताब कर आए हम भी
बारे इस आब-ए-रवाँ की दौलत

ज़ख़्म क्या क्या मिरे तन पर आए
तेरी शमशीर ओ सिनाँ की दौलत

हुई महबूस-ए-क़फ़स बुलबुल ने
रंज देखा ये ख़िज़ाँ की दौलत

कोई नव्वाब के घर का है ग़ुलाम
कोई पलताए है ख़ाँ की दौलत

'मुसहफ़ी' पर है तिरा कर्र-ओ-फ़र्र
साहिब-ए-आलमियाँ की दौलत