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शौक़-ए-दरबार में मिलते रहे दरबानों से | शाही शायरी
shauq-e-darbar mein milte rahe darbanon se

ग़ज़ल

शौक़-ए-दरबार में मिलते रहे दरबानों से

सफ़ी औरंगाबादी

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शौक़-ए-दरबार में मिलते रहे दरबानों से
हम ने आँखों से न देखा जो सुना कानों से

तलब-ए-मेहर थी ज़ाहिर मिरे अरमानों से
कह गया एक ही क़िस्सा कई उनवानों से

बज़्म की शान घटी चाक गरेबानों से
जाने भी दीजे ख़ता हो गई नादानों से

महव-ए-दीदार हुए हम तो किसी की न सुनी
नूर आँखों में जो आया तो गए कानों से

उन के आने की ख़बर आई इलाही आमीन
काश आँखों से भी देखूँ जो सुना कानों से

क़ैस-ओ-फ़रहाद की तक़लीद है आशुफ़्ता-सरी
आशिक़ी आम हुई ऐसे ही नादानों से

मैं समझता हूँ मुझे आप ने मेहमान किया
क्यूँ तआ'रुफ़ न कराया गया मेहमानों से

साहब पहचान लिए जाते हैं उन के आशिक़
आरज़ुओं से तमन्नाओं से अरमानों से

कहीं ख़ुद्दारों की वहशत का पता चलता है
आस्तीनों से गरेबानों से दामानों से

कभी छोटों से बड़े काम निकल जाते हैं
मेल रख बार-गह-ए-हुस्न के दरबानों से

दर्द-मंदों पे ज़रा रहम करो बे-दर्दो
ज़ब्त-ए-फ़रियाद ज़ियादा तो नहीं जानों से

वो जो अंजान हैं महफ़िल में तो अपना भी सलाम
हम भी मिलते नहीं इस तौर के अन-जानों से

मुँह पे बिखरा लिए बाल आप ने सुब्हान-अल्लाह
दिल-लगी देख के करते हैं परेशानों से

ऐ 'सफ़ी' रंग जो अपना है उसे क्यूँ बदलूँ
तोहमतों से मुझे अब डर है न बोहतानों से