शश्दर-ओ-हैरान है जो भी ख़रीदारों में है
इक सुकूत-ए-बेकराँ हर सम्त बाज़ारों में है
नौबत-ए-क़हत-ए-मसीहाई यहाँ तक आ गई
कुछ दिनों से आरज़ू-ए-मर्ग बीमारों में है
वो भी क्या दिन थे कि जब हर वस्फ़ इक एज़ाज़ था
आज तो अज़्मत क़बाओं और दस्तारों में है
उड़ रहे हैं रंग फूलों के फ़क़त इस बात पर
इल्तिफ़ात फ़स्ल-ए-गुल का ज़िक्र क्यूँ ख़ारों में है
ऐ मिरे नाक़िद मिरे अशआ'र कम-पाया सही
कम से कम इबलाग़ तो मेरे सुख़न-पारों में है
बुझ नहीं सकती किसी सूरत हवस की तिश्नगी
बहर-ए-बे-पायाँ भी बारिश के तलब-गारों में है
ख़ूबसूरत शक्ल में हम सब दरिंदे हैं 'असद'
आदमी कहते हैं जिस को वो अभी ग़ारों में है
ग़ज़ल
शश्दर-ओ-हैरान है जो भी ख़रीदारों में है
असद जाफ़री