शर्मिंदा उन्हें और भी ऐ मेरे ख़ुदा कर
दस्तार जिन्हें दी है उन्हें सर भी अता कर
लूटा है सदा जिस ने हमें दोस्त बना कर
हम ख़ुश हैं उसी शख़्स से फिर हाथ मिला कर
डर है कि न ले जाए वो हम को भी चुरा कर
हम लाए हैं घर में जिसे मेहमान बना कर
इक मौज दबे पाँव तआ'क़ुब में चली आई
हम ख़ुश थे बहुत रेत की दीवार बना कर
हम चाहें कि मिल जाएँ हमें ढेर से मोती
सीढ़ी किसी पुर-हौल समुंदर में लगा कर
दरकार उजाला है मगर सहमे हुए हैं
कर दे न अँधेरा कोई बारूद जला कर
ले इस ने तिरा कासा-ए-जाँ तोड़ ही डाला
जा कूचा-ए-क़ातिल में 'क़तील' और सदा कर
ग़ज़ल
शर्मिंदा उन्हें और भी ऐ मेरे ख़ुदा कर
क़तील शिफ़ाई