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शर्मिंदा किया जौहर-ए-बालिग़-नज़री ने | शाही शायरी
sharminda kiya jauhar-e-baaligh-nazri ne

ग़ज़ल

शर्मिंदा किया जौहर-ए-बालिग़-नज़री ने

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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शर्मिंदा किया जौहर-ए-बालिग़-नज़री ने
इस जिंस को बाज़ार में पूछा न किसी ने

सद शुक्र किसी का नहीं मोहताज-ए-करम में
एहसान किया है तिरी बेदाद-गरी ने

मोहताज थी आईने की तस्वीर सी सूरत
तस्वीर बनाया मुझे महफ़िल में किसी ने

गुल हँसते हैं ग़ुंचे भी हैं लबरेज़-ए-तबस्सुम
क्या उन से कहा जा के नसीम-ए-सहरी ने

मायूस न कर दे कहीं उन की निगह-ए-गर्म
उम्मीद दिलाई है मुझे सादा-दिली ने

मेहनत ही पे मौक़ूफ़ है आसाइश-ए-गेती
खोई मिरी राहत मिरी राहत-तलबी ने

'वहशत' मैं निगाहों के तजस्सुस से हूँ आज़ाद
एहसान किया मुझ पे मिरी बे-हुनरी ने