शरह-ए-जाँ-सोज़-ए-ग़म-ए-अर्ज़-ए-वफ़ा क्या करते
तुम भी इक झूटी तसल्ली के सिवा क्या करते
शीशा नाज़ुक था ज़रा चोट लगी टूट गया
हादसे होते ही रहते हैं गिला क्या करते
रात ने छेड़ दिए भूले हुए अफ़्साने
जाग कर सुब्ह न करते तो भला क्या करते
अपनी कश्ती को भी मिल जाता किनारा शायद
तुंद थी मौज मुख़ालिफ़ थी हवा क्या करते
जज़्बा-ए-शौक़ को इज़हार की फ़ुर्सत न मिली
लफ़्ज़-ओ-मा'नी का फ़ुसूँ टूट गया क्या करते
दिल को वो दर्द मिला जिस का मुदावा न इलाज
मेरे मोनिस मिरे ग़म-ख़्वार भला क्या करते
थी न क्या क्या हवस-ए-सैर-ओ-तमाशा 'ताबाँ'
रास्ते पाँव की ज़ंजीरें बना क्या करते

ग़ज़ल
शरह-ए-जाँ-सोज़-ए-ग़म-ए-अर्ज़-ए-वफ़ा क्या करते
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ