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शम्अ' पर शम्अ' जलाती हुई साथ आती है | शाही शायरी
shama par shama jalati hui sath aati hai

ग़ज़ल

शम्अ' पर शम्अ' जलाती हुई साथ आती है

शमीम करहानी

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शम्अ' पर शम्अ' जलाती हुई साथ आती है
रात आती है कि यादों की बरात आती है

इक ज़रा कूचा-ए-जानाँ में ठहर जा ऐ मौत
ख़ैर-मक़्दम के लिए मेरी हयात आती है

फेर लेते हैं निगाहें तिरे प्यासे हँस कर
जाम पर जाम लिए मौज-ए-फ़ुरात आती है

क़िस्सा-ए-दैर-ओ-हरम और से पूछो लोगो
हम तो शाइ'र हैं हमें प्यार की बात आती है

होशियार ऐ दिल-ए-बेताब कि मक़्तल है क़रीब
आख़िरी मंज़िल-ए-तस्लीम-ओ-सिबात आती है

जगमगाते हुए महलों की तरफ़ तो देखो
उन की दुनिया में दिन आता है कि रात आती है

जिस से बन जाती है बिगड़ी हुई क़िस्मत ऐ दोस्त
ऐसी तदबीर भी तक़दीर से हाथ आती है

तिश्ना-कामान-ए-मोहब्बत से कहो सब्र करें
मौत हाथों में लिए आब-ए-हयात आती है

मुस्कुराहट नहीं आती लब-ए-साक़ी पे 'शमीम'
ग़म-ए-दौराँ के लिए सुब्ह-ए-नजात आती है