शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे
दिल में ख़ुद आग लगा बैठे थे
होश आया तो कहीं कुछ भी न था
हम भी किस बज़्म में जा बैठे थे
दश्त गुलज़ार हुआ जाता है
क्या यहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे
अब वहाँ हश्र उठा करते हैं
कल जहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे
ग़ज़ल
शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे
सफ़िया शमीम