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शम्-ए-इख़्लास-ओ-यक़ीं दिल में जला कर चलिए | शाही शायरी
sham-e-iKHlas-o-yaqin dil mein jala kar chaliye

ग़ज़ल

शम्-ए-इख़्लास-ओ-यक़ीं दिल में जला कर चलिए

अशोक साहनी

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शम्-ए-इख़्लास-ओ-यक़ीं दिल में जला कर चलिए
ज़ुल्मत-ए-यास में उम्मीद जगा कर चलिए

हम से दीवाने कहाँ ज़ाद-ए-सफ़र रखते हैं
साथ चलना है तो अस्बाब लुटा कर चलिए

इश्क़ का रास्ता आसान नहीं होता है
बाज़ी-ए-इश्क़ में जान अपनी लुटा कर चलिए

रात अँधेरी हो तो जुगनू की चमक काफ़ी है
शर्त इतनी है कि एहसास जगा कर चलिए

नफ़रत ओ बुग़्ज़ का अंजाम बुरा होता है
नफ़रत ओ बुग़्ज़ से दामन को बचा कर चलिए

रात सफ़्फ़ाक है सूरज को निगल जाती है
अपनी मुट्ठी में सितारों को छुपा कर चलिए

हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता है 'अशोक'
अब चराग़ों की जगह दिल को जला कर चलिए