शहर-ए-सदमात से आगे नहीं जाने वाला
मैं तिरी ज़ात से आगे नहीं जाने वाला
तू भी औक़ात में रह मुझ से झगड़ने वाले
मैं भी औक़ात से आगे नहीं जाने वाला
ऐसे लगता है मिरी जान तअल्लुक़ अपना
इस मुलाक़ात से आगे नहीं जाने वाला
आज की रात है बस नूर की किरनों का जलाल
दीप इस रात से आगे नहीं जाने वाला
मेरे कश्कोल में डाल और ज़रा इज्ज़ कि मैं
इतनी ख़ैरात से आगे नहीं जाने वाला
ग़ज़ल
शहर-ए-सदमात से आगे नहीं जाने वाला
अहमद ख़याल