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शहर-ए-दिल उजड़ा तो बरबाद हुआ क्या क्या कुछ | शाही शायरी
shahr-e-dil ujDa to barbaad hua kya kya kuchh

ग़ज़ल

शहर-ए-दिल उजड़ा तो बरबाद हुआ क्या क्या कुछ

महमूदुल हसन

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शहर-ए-दिल उजड़ा तो बरबाद हुआ क्या क्या कुछ
नक़्श-बर-आब की मानिंद मिटा क्या क्या कुछ

दर्द-ए-दिल काहिश-ए-जाँ सोज़-ए-दरूँ दाग़-ए-जिगर
बे-तलब तेरी इनायत से मिला क्या क्या कुछ

उफ़ ये बेगानगी-ओ-तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का अज़ाब
पा गए हम भी वफ़ाओं का सिला क्या क्या कुछ

कैसा इंसाफ़ है ये कैसी अदालत है तिरी
दी है ना-कर्दा ख़ताओं की सज़ा क्या क्या कुछ

कब ख़बर होती हमें कौन कहाँ से आया
कह गया चुपके से नक़्श-ए-कफ़-ए-पा क्या क्या कुछ

राहत-ए-वस्ल मोहब्बत का नशा दर्द-ए-फ़िराक़
तिरी चाहत ने मिरी जान दिया क्या क्या कुछ

लब तिरे किस लिए इक़रार-ए-मोहब्बत करते
आँख ही कह गई ऐ जान-ए-वफ़ा क्या क्या कुछ