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शहर-दर-शहर दीदा-वर भटके | शाही शायरी
shahr-dar-shahr dida-war bhaTke

ग़ज़ल

शहर-दर-शहर दीदा-वर भटके

फ़रहत अब्बास

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शहर-दर-शहर दीदा-वर भटके
ज़ोम-ए-बातिल में ताजवर भटके

ख़ुद-सरी में जो मो'तबर भटके
हम-सफ़र उन के बे-ख़बर भटके

फ़न की पगडंडियों पे चलते हुए
कभी भटके तो बे-हुनर भटके

हम जो भटके तो ना-शनासा थे
राहबर क्यूँ इधर उधर भटके

एक आलम को जिस ने भटकाया
कभी यूँ हो कि वो नज़र भटके

अपनी मंज़िल का इल्म होते हुए
फिर भी हम जान-बूझ कर भटके

ज़िंदगी के लिबास-ए-ख़स्ता में
धूप में हम बरहना-सर भटके

किस में हिम्मत थी हम को भटकाता
अपनी ख़्वाहिश पे उम्र-भर भटके

हाए उस गुल-बदन की हसरत में
यूँ भटकना न था मगर भटके

उस को भी पा सके नहीं 'फ़रहत'
जिस की ख़्वाहिश में दर-ब-दर भटके