शहर बदला हुआ सा लगता है
हर कोई ऊपरा सा लगता है
मुझ को अक्सर ख़ुद अपने अंदर ही
कुछ भटकता हुआ सा लगता है
जाने क्या बात है कि घर मुझ को
रोज़ गिरता हुआ सा लगता है
मुझ को हर शख़्स अपनी बस्ती का
ख़ुद से रूठा हुआ सा लगता है
दर्द से यूँ नजात कब होगी
वक़्त ठहरा हुआ सा लगता है
ज़ख़्म खाए हुए ज़माना हुआ
दर्द अब तक नया सा लगता है
दास्तानें हैं ख़ूब सब की मगर
अपना क़िस्सा जुदा सा लगता है
ग़ज़ल
शहर बदला हुआ सा लगता है
बलबीर राठी