EN اردو
शहर में ओले पड़े हैं सर सलामत है कहाँ | शाही शायरी
shahar mein ole paDe hain sar salamat hai kahan

ग़ज़ल

शहर में ओले पड़े हैं सर सलामत है कहाँ

इमाम अाज़म

;

शहर में ओले पड़े हैं सर सलामत है कहाँ
इस क़दर है तेज़ आँधी घर सलामत है कहाँ

रात ने ऐसी सियाही अब बिखेरी चार-सू
आँख वालों के लिए मंज़र सलामत है कहाँ

आप कहते हैं छुपा लूँ अपनी उर्यानी मगर
जिस्म से लिपटी हुई चादर सलामत है कहाँ

क़ुलक़ुल-ए-मीना से अपनी प्यास तो बुझती नहीं
चूर सब शीशे हुए साग़र सलामत है कहाँ

रेज़ा रेज़ा हो गई हर शख़्स की पाकीज़गी
संग-सारी के लिए पत्थर सलामत है कहाँ

कोई चेहरा अस्ल सूरत में रहे बाक़ी तो क्यूँ
बुत-शिकन के अहद में आज़र सलामत है कहाँ

हर तरफ़ इक जंग का माहौल है 'आज़म' यहाँ
आदमी अब घर के भी अंदर सलामत है कहाँ