शहर में ओले पड़े हैं सर सलामत है कहाँ
इस क़दर है तेज़ आँधी घर सलामत है कहाँ
रात ने ऐसी सियाही अब बिखेरी चार-सू
आँख वालों के लिए मंज़र सलामत है कहाँ
आप कहते हैं छुपा लूँ अपनी उर्यानी मगर
जिस्म से लिपटी हुई चादर सलामत है कहाँ
क़ुलक़ुल-ए-मीना से अपनी प्यास तो बुझती नहीं
चूर सब शीशे हुए साग़र सलामत है कहाँ
रेज़ा रेज़ा हो गई हर शख़्स की पाकीज़गी
संग-सारी के लिए पत्थर सलामत है कहाँ
कोई चेहरा अस्ल सूरत में रहे बाक़ी तो क्यूँ
बुत-शिकन के अहद में आज़र सलामत है कहाँ
हर तरफ़ इक जंग का माहौल है 'आज़म' यहाँ
आदमी अब घर के भी अंदर सलामत है कहाँ
ग़ज़ल
शहर में ओले पड़े हैं सर सलामत है कहाँ
इमाम अाज़म