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शब को फिरे वो रश्क-ए-माह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू | शाही शायरी
shab ko phire wo rashk-e-mah KHana-ba-KHana ku-ba-ku

ग़ज़ल

शब को फिरे वो रश्क-ए-माह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

ताबाँ अब्दुल हई

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शब को फिरे वो रश्क-ए-माह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू
दिन को फिरूँ मैं दाद-ख़्वाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

क़िबला न सर-कशी करो हुस्न पे अपने इस क़दर
तुम से बहुत हैं कज-कुलाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

ख़ाना-ख़राब-ए-इश्क़ ने खो के मिरी हया-ओ-शर्म
मुझ को किया ज़लील आह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

तू ने जो कुछ कि की जफ़ा ता-दम-ए-क़त्ल मैं सही
मेरी वफ़ा के हैं गवाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

तेरी कमंद-ए-ज़ुल्फ़ के मुल्क-ब-मुल्क हैं असीर
बिस्मिल-ए-ख़ंजर-निगाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

कल तू ने किस का ख़ूँ किया मुझ को बता कि आज है
शोर ओ फ़ुग़ाँ ओ आह आह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

मुझ को बुला के क़त्ल कर या तो मिरे गुनाह बख़्श
हूँ मैं कहाँ तलक तबाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

सीना-फ़िगार ओ जामा-चाक गिर्या-कुनाँ ओ नारा-ज़न
फिरते हैं तेरे दाद-ख़्वाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

'ताबाँ' तिरे फ़िराक़ में सर को पटकता रात दिन
फिरता है मिस्ल-ए-महर-ओ-माह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू