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शब हम को जो उस की धुन रही है | शाही शायरी
shab hum ko jo uski dhun rahi hai

ग़ज़ल

शब हम को जो उस की धुन रही है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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शब हम को जो उस की धुन रही है
क्या जी में उधेड़-बुन रही है

मजनूँ से कहो कि ''माँ के लैला
ख़ातिर तिरी ता'ने सुन रही है''

परवाना तो जल चुका वले शम्अ'
सर अपना हनूज़ धुन रही है

पहलू से उठा मिरे न ग़बग़ब
ये पोटली दर्द चुन रही है

ये आह पे लख़्त-ए-दिल जले हैं
या सीख़-कबाब भुन रही है

रक्खूँ न अज़ीज़ दाग़-ए-दिल को
पास अपने यही तो हुन रही है

ऐ मेंह न बरस कि 'मुसहफ़ी' की
छत घर की तमाम घुन रही है