शब-ए-विसाल मज़ा दे रही है 'तू' तेरी
लबों से घोलती है क़ंद गुफ़्तुगू तेरी
तिरी ज़बाँ को बिगाड़ा रक़ीब-ए-बद-ख़ू ने
कि बात बात में गाली तो थी न ख़ू तेरी
लगा रहा है हिना कौन तेरे हाथों में
रुला रही है मुझे ख़ून आरज़ू तेरी
तिरे सुकूत में भी इक अदा निकलती है
कि है छुपी हुई पर्दे में गुफ़्तुगू तेरी
न चाक कर दिल-ए-बे-ताब को मिरे ज़ालिम
निकल के हो कहीं रुस्वा न आरज़ू तेरी
कभी है क़स्द हरम का कभी है अज़्म-ए-कुनिश्त
कशाँ कशाँ लिए फिरती है आरज़ू तेरी
ग़ज़ल
शब-ए-विसाल मज़ा दे रही है 'तू' तेरी
सुरूर जहानाबादी