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शब-ए-वस्ल क्या मुख़्तसर हो गई | शाही शायरी
shab-e-wasl kya muKHtasar ho gai

ग़ज़ल

शब-ए-वस्ल क्या मुख़्तसर हो गई

जिगर मुरादाबादी

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शब-ए-वस्ल क्या मुख़्तसर हो गई
ज़रा आँख झपकी सहर हो गई

निगाहों ने सब राज़-ए-दिल कह दिया
उन्हें आज अपनी ख़बर हो गई

बड़ी चीज़ है तर्ज़-ए-बेगानगी
ये तरकीब अगर कारगर हो गई

इलाही बुरा हो ग़म-ए-इश्क़ का
सुना है कि उन को ख़बर हो गई

किए मुझ पे एहसाँ ग़म-ए-यार ने
हमेशा को नीची नज़र हो गई

नुमायाँ हुई सुब्ह-ए-पीरी 'जिगर'
बस अब दास्ताँ मुख़्तसर हो गई