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शब-ए-ग़म में छाई घटा काली काली | शाही शायरी
shab-e-gham mein chhai ghaTa kali kali

ग़ज़ल

शब-ए-ग़म में छाई घटा काली काली

क़द्र बिलगरामी

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शब-ए-ग़म में छाई घटा काली काली
झुकी है बला पर बला काली काली

बहुत ऐसे काले हिरन हम ने देखे
दिखाते हैं आँखें वो क्या काली काली

डटे मिल के रिंद-ए-सियह-मस्त जिस दम
झुकी मय-कदे पर घटा काली काली

शब-ए-माह में वो फिरे बाल खोले
हुई चाँदनी जा-ब-जा काली काली

ये सज्दे को ख़ुद झुक पड़ेगी चमन पर
कि क़िबले से उट्ठी घटा काली काली

खुली सब पर आख़िर तिरी गर्म-दस्ती
हुई खोलते ही हिना का काली काली

लुंढा दे मय-ए-सुर्ख़ तू अब तो साक़ी
घटा उट्ठी है देख क्या काली काली

मिरे का'बा-ए-दिल के मिटने का ग़म है
जो ओढ़े है काबा सबा काली काली

हुए हैं सियह-बख़्त बरबाद लाखों
उठीं आँधियाँ बारहा काली काली

बुख़ारात दिल-ए-आह पर छा गए हैं
घटा है बरु-ए-हवा काली काली

मैं देखूँगा मुँह उन का दे कर ये फ़िक़रा
तिरी शक्ल है मह-लक़ा काली काली

सियह नामा-ए-'क़द्र' महशर में निकला
उठी धूप में इक घटा काली काली