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शब भर रवाँ रही गुल-ए-महताब की महक | शाही शायरी
shab bhar rawan rahi gul-e-mahtab ki mahak

ग़ज़ल

शब भर रवाँ रही गुल-ए-महताब की महक

ज़फ़र इक़बाल

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शब भर रवाँ रही गुल-ए-महताब की महक
पौ फूटते ही ख़ुश्क हुआ चश्मा-ए-फ़लक

मौज-ए-हवा से काँप गया रूह का चराग़
सैल-ए-सदा में डूब गई याद की धनक

फिर जा रुकेगी बुझते ख़राबों के देस में
सूनी सुलगती सोचती सुनसान सी सड़क

रुख़ फेर कर जो अब्र-ए-शबाना में छुप गया
जी में फिरा करेगी उसी चाँद की चमक

फिर पिछले पहर आइना-ए-अश्क में 'ज़फ़र'
लर्ज़ां रही वो साँवली सूरत सवेर तक