EN اردو
शायद मिरी फ़रियाद सुनाई नहीं देती | शाही शायरी
shayad meri fariyaad sunai nahin deti

ग़ज़ल

शायद मिरी फ़रियाद सुनाई नहीं देती

मिद्हत-उल-अख़्तर

;

शायद मिरी फ़रियाद सुनाई नहीं देती
क़ुदरत जो मुझे हुक्म-ए-रिहाई नहीं देती

था पहले बहुत शोर निहाँ-ख़ाना-ए-दिल में
अब तो कोई सिसकी भी सुनाई नहीं देती

ख़्वाबों की तिजारत में यही एक कमी है
चलती है दुकाँ ख़ूब कमाई नहीं देती

हर तार-ए-नफ़स है मुतहर्रिक मुतवातिर
रुख़्सत ही मुझे नग़्मा-सराई नहीं देती

क्या धुँद है अश्कों की मुसल्लत दिल ओ जाँ पर
देखी हुई दुनिया भी दिखाई नहीं देती

चलने को तो सब यार कमर-बस्ता खड़े हैं
जिस राह पे चलना है सुझाई नहीं देती

काँटों पे चलाती है कोई और ही लज़्ज़त
वहशत का सिला आबला-पाई नहीं देती

मैं क़ैद-ए-महालात से दम भर में निकल जाऊँ
हासिल की हवस मुझ को रिहाई नहीं देती

मैं अपनी ही मिट्टी से बना लेता हूँ 'मिदहत'
वो चीज़ जो औरों की ख़ुदाई नहीं देती