शाम थी और बर्ग-ओ-गुल शल थे मगर सबा भी थी
एक अजीब सुकूत था एक अजब सदा भी थी
एक मलाल का सा हाल महव था अपने हाल में
रक़्स-ओ-नवा थे बे-तरफ़ महफ़िल-ए-शब बपा भी थी
सामेआ-ए-सदा-ए-जाँ बे-सरोकार था कि था
एक गुमाँ की दास्ताँ बर-लब नीम-वा भी थी
क्या मह-ओ-साल माजरा एक पलक थी जो मियाँ
बात की इब्तिदा भी थी बात की इंतिहा भी थी
एक सुरूद-ए-रौशनी नीमा-ए-शब का ख़्वाब था
एक ख़मोश तीरगी सानेहा-आश्ना भी थी
दिल तिरा पेशा-ए-गिला-ए-काम ख़राब कर गया
वर्ना तो एक रंज की हालत-ए-बे-गिला भी थी
दिल के मुआ'मले जो थे उन में से एक ये भी है
इक हवस थी दिल में जो दिल से गुरेज़-पा भी थी
बाल-ओ-पर-ए-ख़याल को अब नहीं सम्त-ओ-सू नसीब
पहले थी इक अजब फ़ज़ा और जो पुर-फ़ज़ा भी थी
ख़ुश्क है चश्मा-सार-ए-जाँ ज़र्द है सब्ज़ा-ज़ार-ए-दिल
अब तो ये सोचिए कि याँ पहले कभी हवा भी थी
ग़ज़ल
शाम थी और बर्ग-ओ-गुल शल थे मगर सबा भी थी
जौन एलिया