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शाम को सुब्ह अँधेरे को उजाला लिक्खें | शाही शायरी
sham ko subh andhere ko ujala likkhen

ग़ज़ल

शाम को सुब्ह अँधेरे को उजाला लिक्खें

साहिर होशियारपुरी

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शाम को सुब्ह अँधेरे को उजाला लिक्खें
आलम-ए-शौक़ में क्या जानिए हम क्या लिक्खें

मुद्दआ' लिक्खें तलब लिक्खें तमन्ना लिक्खें
इतना कुछ लिख के भी हम ख़त को अधूरा लिक्खें

कोई ख़ुशबू न कोई रंग न कोई आवाज़
दिल को हम संग न समझें तो इसे क्या लिक्खें

इक इसी सोच में गुम हो गए कितने मौसम
इन से हम हाल ज़बानी ही कहें या लिक्खें

हम को इसरार कि ज़ुल्मत को ज़िया क्यूँ मानें
उन का ये हुक्म कि हर शब को सवेरा लिक्खें

मस्लहत हम को भी मर्ग़ूब है लेकिन कब तक
ख़ार को फूल कहें दश्त को दरिया लिक्खें

हुस्न-ए-मासूम को मौसूम करें क़ातिल से
और क़ातिल को ज़माने का मसीहा लिक्खें

दास्तान-ए-दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता कहाँ तक 'साहिर'
अब ग़म-ए-ज़ात से हट कर ग़म-ए-दुनिया लिक्खें