शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
बे-ख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो
ये सुकूत-ए-नाज़ ये दिल की रगों का टूटना
ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो
निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म
सुब्ह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो
हर रग-ए-दिल वज्द में आती रहे दुखती रहे
यूँही उस के जा-ओ-बेजा नाज़ की बातें करो
जौ अदम की जान है जो है पयाम-ए-ज़िंदगी
उस सुकूत-ए-राज़ उस आवाज़ की बातें करो
इश्क़ रुस्वा हो चला बे-कैफ़ सा बेज़ार सा
आज उस की नर्गिस-ए-ग़म्माज़ की बातें करो
नाम भी लेना है जिस का इक जहान-ए-रंग-ओ-बू
दोस्तो उस नौ-बहार-ए-नाज़ की बातें करो
किस लिए उज़्र-ए-तग़ाफुल किस लिए इल्ज़ाम-ए-इश्क़
आज चर्ख़-ए-तफ़रक़ा-पर्वाज़ की बातें करो
कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो
जो हयात-ए-जाविदाँ है जो है मर्ग-ए-ना-गहाँ
आज कुछ उस नाज़ उस अंदाज़ की बातें करो
इश्क़-ए-बे-परवा भी अब कुछ ना-शकेबा हो चला
शोख़ी-ए-हुस्न-ए-करिश्मा-साज़ की बातें करो
जिस की फ़ुर्क़त ने पलट दी इश्क़ की काया 'फ़िराक़'
आज उस ईसा-नफ़स दम-साज़ की बातें करो
ग़ज़ल
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
फ़िराक़ गोरखपुरी