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शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो | शाही शायरी
sham-e-gham kuchh us nigah-e-naz ki baaten karo

ग़ज़ल

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो

फ़िराक़ गोरखपुरी

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शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
बे-ख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो

ये सुकूत-ए-नाज़ ये दिल की रगों का टूटना
ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो

निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म
सुब्ह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो

हर रग-ए-दिल वज्द में आती रहे दुखती रहे
यूँही उस के जा-ओ-बेजा नाज़ की बातें करो

जौ अदम की जान है जो है पयाम-ए-ज़िंदगी
उस सुकूत-ए-राज़ उस आवाज़ की बातें करो

इश्क़ रुस्वा हो चला बे-कैफ़ सा बेज़ार सा
आज उस की नर्गिस-ए-ग़म्माज़ की बातें करो

नाम भी लेना है जिस का इक जहान-ए-रंग-ओ-बू
दोस्तो उस नौ-बहार-ए-नाज़ की बातें करो

किस लिए उज़्र-ए-तग़ाफुल किस लिए इल्ज़ाम-ए-इश्क़
आज चर्ख़-ए-तफ़रक़ा-पर्वाज़ की बातें करो

कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो

जो हयात-ए-जाविदाँ है जो है मर्ग-ए-ना-गहाँ
आज कुछ उस नाज़ उस अंदाज़ की बातें करो

इश्क़-ए-बे-परवा भी अब कुछ ना-शकेबा हो चला
शोख़ी-ए-हुस्न-ए-करिश्मा-साज़ की बातें करो

जिस की फ़ुर्क़त ने पलट दी इश्क़ की काया 'फ़िराक़'
आज उस ईसा-नफ़स दम-साज़ की बातें करो