शाख़ पे चिड़िया गाती है
जो कुछ है लम्हाती है
पलकें भीगी रहती हैं
दिल की फ़ज़ा जज़्बाती है
बात करूँ या शेर कहूँ
एक सी ख़ुश्बू आती है
शहर में हूँ और तन्हा हूँ
रंग मिरा क़स्बाती है
फ़िक्र है मुझ को अपनी ही
ग़म भी मेरा ज़ाती है
हुक्म न दो बेदारी का
नींद ही किस को आती है
लम्स-ए-अना पर इतना नाज़
ख़ुश्बू है उड़ जाती है
शम्अ की सूरत क़िस्मत भी
जलते ही बुझ जाती है
क़ैद-ए-क़फ़स में अब 'नाज़िर'
रूह बहुत घबराती है
ग़ज़ल
शाख़ पे चिड़िया गाती है
नाज़िर सिद्दीक़ी